अश्रु को हुई जिज्ञासा,
क्या क्रंदन है भाग्य मेरा?
आँखों की सूजन, काजल की धूमल,
छाती का फटना, मन का अफसोस,
क्या बस दुःख को जनना है अस्तित्व मेरा?
राह पकड़ बन पथिक चल पड़ा, खोजने अपना भाग्य,
बढ़ता जा पहुंचा एक निर्धन के द्वार,
झाँका जो द्वार के पार, हुआ भृम अपार,
देखा फटे कपड़ों की चादर ओढ़े,
जर्जर बुढ़ापा बैठा किस्मत पर हँसता जाता था,
रोटी के दो सूखे टुकड़े मिट्टी फांक चबाता था,
फटती छाती बंजर भूमि सी दुःख की फसल उगाती थी,
जन्म सफल जीवन की माया जाले से बुनती जाती थी,
नन्हा बचपन कह भूख-भूख धरती पर लोटा जाता था,
श्वानों से जूठन छीन छीन कर अपनी भूख मिटाता था,
माँ की ममता दूर कहीं कोने में बैठ कर रोती थी,
दूध नहीं छाती से अपनी खून निचोड़ के देती थी ,
अश्रु से भरा था मन का सागर, दुःख का ज्वार चढ़ा था भारी,
यूँ देख क्रूर जगत गाथा को अश्रु ने सारी हिम्मत हारी
मिले कहीं कुछ ठौर मुझे भी, खुद को ढाँढस देता था,
थे पग उसके पत्थर से भारी, उसका मन भी रोता था,
पर मिला कहीं न ठौर व्यथा को, हर दर पर थे अश्रु ही अश्रु,
क्या निर्धन क्या सधन, क्या रजा क्या रंक, सभी सुख को जिज्ञासु,
निर्धन रोता धन की माया में, सधन निशाचर से था व्यापित,
यम की खडःग थी भय राजन का, रंक दासता से था शापित,
व्यर्थ जना दाता ने मुझको, कुछ अर्थ भला भी मेरा है,
चीखों करुण स्वरों में ही बस रहता मेरा डेरा है,
अंतर की ग्लानि तपती लू सी आशा की फसल जलाती थी,
अस्तित्व शून्य पीड़ा दीमक सी मन-शीशम खाती जाती थी,
ह्रदय रीढ़ संबल विहीन थी, बुद्धि हीन हुई बुद्धि से,
अपनी जनी व्यथा वर्षा में अश्रु भीग गया अश्रु से
तपती भूमि पर प्रथम बूंद सी तभी कहीं कुछ दूर से आई,
सुखद सरस आनंद से पूरित मद्धम सी दी हंसी सुनाई,
कल-कल बहती चंचल नद सी दीख पड़ी इक नन्ही काया,
टुकुर-टुकुर टकती मुद्रा ने अश्रु का मानस भरमाया,
सम्मोहित से पग चले उधर को, जहाँ चहकता सुख निर्झर था,
सब कुछ भूल गया क्षण भर को, अदभुत दृश्य ह्रदय मोहित था,
जीवन घुटनों पर धावक सा आँगन में दौड़ लगता था,
बाल सलिल क्रीडा में लथपथ माँ का ह्रदय रिझाता था,
शब्द नहीं फूटे थे अब तक, वाणी वर्णन को थी व्याकुल,
मानों नव-कोपल दिनकर दर्शन को, अधखुले अधर हो रहे थे आकुल,
क्षण-क्षण, पल-पल का परिवर्तन नव दृश्य उपस्थित करता था,
झूठ-मूठ में रूठ रूठ कर, माँ का अंतर जब हँसता था,
नन्ही-नन्ही कोमल अंगुल जब माँ का चीर डुलाती थी,
सारी रुठन ममता में घुलकर क्षण भर में ओस बन जाती थी
पर बात अलग, कुछ बात और थी,
माँ की रुठन पा गयी ठौर थी,
लाख जतन सौ बार लाड भी,
लपट झपट के सब दुलार भी,
कुछ कम ही असर दिखाता था,
ममता की मीठी इस ठिठोली को,
कोमल चित्त जान न पाता था,
रण छोड़ गए जब सब प्रयत्न,
कर्त्तव्य-विमूढ़ जब हुए यत्न,
तब रुंधे गले से अनायास ही,
बिना परिश्रम बिन प्रयास ही,
'माँ...माँ', हल्का सा स्वर फूटा,
यूँ प्रथम बार सुन 'माँ' शब्द शिशु से,
माँ के धीरज का बांध था टूटा
तब ढुलक गया कुछ मोम नयन से,
छलक पड़े कुछ भाव ह्रदय के,
मोती बन ममता जब बरसी,
देवयोनी भी इस सुख को तरसी,
धन्य-धन्य है प्रभु की माया,
अश्रु को यह समझ में आया
Tuesday, May 25, 2010
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welcome to the world of blogging!! bhaisahab gambheeeer poem and thoughts!!
ReplyDeletegr8 flow of thoughts yaar...
ReplyDeletei absolutely loved ur 'shaili' or style of writing. Also the change of paras is very well done... :)
Cant wait for more... Nd m following u :)
@anks & eddy: thanx bro!!!!!!!!
ReplyDelete@addy: totally agree wid u
ReplyDelete@ankit:pel diya yaar..bahut mast hai be..shabash mere sher..bas ab agli romantic honi chahiye..
kya baat hai ankit bhai maal likhte ho
ReplyDeletevery well written yaar....den dayal ki pratibha ubhar ubhar kar aa rahi hai
ReplyDeletetu shakal se jaisa lagta hai, kavitaye usse badi achi likh leta hai.
ReplyDeletegreat work!
itti shuddh hindi!!
ReplyDeletepel diya be...meaning pe jao to thoughts ki gahrayee samajh aayi..
totally agree wid cool brains...agliromantic honi chahiye.
behadd prashansneeya.. :) aage bhi hume intezaar rahega :)
ReplyDeletethanx guys!!!!!!!!
ReplyDeletesahi hai yar! ye tum deen dayal wale to alag hi hote ho...kaha se laate ho ye words, metaphors, sab kuch...nice work man...keep the blog updated
ReplyDeleteGreat yar. Bahut dino bad sahi kavita parhne ko mili hai. Chandan Keep it up.......Best of luck from my side.....
ReplyDeletegreat..
Behad Shaandaar
ReplyDeleteNever knew I had you so close for so long with so much of Talent.....
Good Job. Keep Writing.
thanx everyone!!...couldn't come back here in recent time....but I'll try to get it updated..
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