Thursday, August 25, 2011

अंतर्द्वंद

बुद्धि बाधित, चेतना मूर्छित, कुछ आशंका सी है मन में,
दशरथ हूँ मैं, चिंतित हूँ, कैकेयी है कोप भवन में,

नीति सुनीति, धर्म कर्म, सब माने मैंने, घर तक भेदा है द्रोही ने,
विभीषण हूँ मैं, फिर क्यूँ जलता हूँ इस लंका दहन में,

जीवन सींचे, पाप समेटे, लाशें तक ढोयी हैं दमन में,
गंगा हूँ मैं, फिर क्यूँ डूब रही हूँ अपने ही जल में,

धन आभूषण, मोती माणिक, सब भरे पड़े हैं कोटर में,
मैं कुबेर हूँ, फिर क्यूँ मुट्ठी फैली है याचन में,

राज रतन, सब कोष भवन, सीता तक त्यागी है मर्यादा पालन में,
मैं राम हूँ, पर भयभीत हूँ, मुझे यम है दिखता रावन में,

भूत भभूत, रक्ष नाग, सब सेवक मेरे, विष्धारक संहारक हूँ मैं,
मैं नीलकंठ हूँ, फिर क्यूँ डगमग होते हैं पग तांडव में,

श्रवण यहाँ हत्यारा है, विषबुझे बेर हैं शबरी के,
कंस कृष्ण मित्र यहाँ पर, मुहम्मद आदिल हैं साहब के,

वीणा के स्वर अब विस्मृत हैं, मुरली की तान डराती है,
मंदिर मस्जिद की हार जीत में मानवता खून बहाती है,

छल प्रपंच, सब लोभ दंभ, रक्त क्षुदा है सीने में,
अब मैं मनुष्य हूँ, सुख है मेरा बस स्वार्थ साधकर जीने में.....